स्ट्रगल ('संघर्ष' शब्द में वैसे अर्थ-बिम्ब नहीं है। दर्द और तनाव, टूटन और नाउम्मीदी के छीलते काँटों की सटीक व्याख्या 'स्ट्रगल' शब्द से ही होती है: 'मुझे चाँद चाहिए-सुरेन्द्र वर्मा', ३७०-३७१) की गहनतम अनुभूतियों से उपजी चंद पंक्तियां.....
सिगरेट के धुंए से दिल को काला करने की नाकाम कोशिश करता हूँ
हर मरती हुई सांस में इक जिंदगी तलाशने की कोशिश करता हूँ.....
सोचता हूँ क्या मिला अच्छा इंसान बनकर।
हर पल इक बुरा इंसान बनने की कोशिश करता हूँ॥
हो ना जाऊं कहीं मैं बेख़ौफ़ इतना की खुदा भी डरने लगे।
रोज-ब-रोज यूँ ही खुद को डराने की कोशिश करता हूँ॥
बरास्ते आँखों के खून का सैलाब उमड़ आया है।
रगों में बहते लहू को पानी बनाने की कोशिश करता हूँ॥
अपनों के दिए जख्म में दर्द उभर आता है।
जब किसी गैर को मरहम लगाने की कोशिश करता हूँ॥
उठ ना जाये भरोसा कहीं खुदा की खुदाई से।
हर इबादतगाह में सजदा करने की कोशिश करता हूँ॥
गम जुदाई का नहीं उनकी बेवफाई का भी नहीं।
वो उतना ही याद आये जितना भुलाने की कोशिश करता हूँ॥
......कोशिश करता हूँ
कोलाज सा....
Tuesday, February 9, 2010
Wednesday, January 27, 2010
उसकी याद........
प्रणाम बंधुओं, ये कविता मैंने तक़रीबन दो साल पहले जर्मनी प्रवास के दौरान लिखी थी और जहाँ तक मुझे याद है मुनिख से स्तुत्त्गार्ट की यात्रा के समय.....इस ठिठुरती हुई ठण्ड की बेला में आप सबको नज़र करता हूँ.....
आज यूँ ही बैठे-बैठे जब आई उसकी याद ।
शब्-ए-बारात की आतिश या चौदवीं का चाँद ॥
जाड़े की ठंडी शामों में बिना स्वेटर निकलना ।
उसका रास्ते में मिलना और सरेआम बिगड़ना ॥
स्वेटर नहीं पहन सकते थे की रट लगा देना ।
और फिर आखिर में मेरे कन्धों को भिगो देना ॥
पता नहीं शिकायत मुझसे है या कि है जाड़े से ।
क्यूँ बेवजह बाहर हो जाती है अपने आपे से ॥
तुम नहीं समझोगे वो बस इतना कहती है ।
जाने किस उधेड़बुन में हमेशा वो रहती है ॥
और फिर दुबक जाती है कहीं सीने में अन्दर तक ।
कोई देख लेगा ना कह दूं मैं तब तक ॥
स्वेटर की सख्त हिदायत दे वो चली जाती है ।
हजार सवाल दुनिया के लिए छोड़ जाती है ॥
सुदूर-देश में ठंडक जब हड्डियाँ गलाती है ।
उसके यादों की गर्मी आज भी राहत पहुंचाती है ॥
शब्-ए-बारात की आतिश या चौदवीं का चाँद ॥
जाड़े की ठंडी शामों में बिना स्वेटर निकलना ।
उसका रास्ते में मिलना और सरेआम बिगड़ना ॥
स्वेटर नहीं पहन सकते थे की रट लगा देना ।
और फिर आखिर में मेरे कन्धों को भिगो देना ॥
पता नहीं शिकायत मुझसे है या कि है जाड़े से ।
क्यूँ बेवजह बाहर हो जाती है अपने आपे से ॥
तुम नहीं समझोगे वो बस इतना कहती है ।
जाने किस उधेड़बुन में हमेशा वो रहती है ॥
और फिर दुबक जाती है कहीं सीने में अन्दर तक ।
कोई देख लेगा ना कह दूं मैं तब तक ॥
स्वेटर की सख्त हिदायत दे वो चली जाती है ।
हजार सवाल दुनिया के लिए छोड़ जाती है ॥
सुदूर-देश में ठंडक जब हड्डियाँ गलाती है ।
उसके यादों की गर्मी आज भी राहत पहुंचाती है ॥
कुछ बातें अवचेतन में कितना प्रभाव छोड़ जाती है.....
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- Ajeet Shrivastava
- I am Ajeet Shrivastava doing M.Tech from IIT Kanpur and looking for Ph.D. in future...